शाकम्भरी देवी Shakambhari Devi

 

शाकम्भरी देवी  Shakambhari Devi ||

- शाकम्भरी देवी -

 - Shakambhari Devi -

 


शाकम्भरी देवी हिंदू धर्म की एक प्रमुख देवी हैं, जिन्हें विशेष रूप से शक्ति पूजा में सम्मानित किया जाता है। शाकम्भरी देवी का नाम संस्कृत के "शाक"  सब्ज़ी, वनस्पति और "अंभरी" (  वह जो ग्रहण करती हैं ) शब्दों से लिया गया है, जिसका अर्थ होता है "वह देवी जो शाक ( वनस्पति ) को ग्रहण करती हैं"। उन्हें प्रकृति की देवी के रूप में पूजा जाता है, जो पृथ्वी पर जीवन के संरक्षण और उत्थान के लिए जिम्मेदार हैं। वे विशेष रूप से भूख से पीड़ित लोगों को आहार प्रदान करने वाली देवी मानी जाती हैं और उनकी पूजा जीवन के समृद्धि और सुख-शांति के लिए की जाती है।


- शाकम्भरी देवी की उत्पत्ति और कथा -

शाकम्भरी देवी के बारे में एक प्रसिद्ध पुराणिक कथा है, जो देवी भागवतम और अन्य ग्रंथों में वर्णित है। इस कथा के अनुसार, एक समय देवताओं और दैत्यों के बीच युद्ध हुआ, जिससे पृथ्वी पर भारी अकाल पड़ गया। जब पृथ्वी पर बुरी स्थिति उत्पन्न हुई और सभी जीव-जंतु भूख से पीड़ित हो गए, तब भगवान शिव ने देवी शाकम्भरी को प्रकट किया। शाकम्भरी देवी ने अपनी शक्ति से धरती पर वनस्पतियाँ और खाद्य सामग्री उत्पन्न की, ताकि जीवों को आहार मिल सके और भूख का नाश हो सके।

उनकी यह कृपा और उनकी शक्ति इतनी बड़ी थी कि वे पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी की भलाई के लिए समर्पित हो गईं। इसके बाद से, शाकम्भरी देवी को अन्न, पोषण और समृद्धि की देवी माना जाता है। उनके साथ जुड़ी एक और प्रसिद्ध कथा यह भी है कि वे हिमाचल प्रदेश के शाकम्भरी पर्वत पर निवास करती हैं, और यह स्थान उनके भक्तों के लिए एक प्रमुख तीर्थ स्थल बन चुका है।

- शाकम्भरी देवी का रूप -

शाकम्भरी देवी का रूप अत्यंत रमणीय और दिव्य है। उनका स्वरूप साधारणतः एक महिला के रूप में चित्रित किया जाता है, जिनके शरीर पर वनस्पतियाँ और फल-पत्तियाँ लिपटी होती हैं। उनके हाथों में विभिन्न प्रकार के फल और शाक होते हैं, जो जीवन के पोषण और आहार का प्रतीक हैं। उनके एक हाथ में माला और दूसरे हाथ में कलश होता है, जिसमें शुद्ध जल या आहार सामग्री का प्रतीक होता है। उनके मस्तक पर चंद्रमा का आकार और गहनों से सजा हुआ सिर मिलता है, जो उनके दिव्यता और सामर्थ्य को दर्शाता है।

- शाकम्भरी देवी की पूजा और महत्व -

शाकम्भरी देवी की पूजा विशेष रूप से उन स्थानों पर की जाती है, जहाँ अकाल, खाद्य संकट या किसी प्रकार की कठिनाई आई हो। उन्हें अन्न, जल, और वनस्पतियों के रूप में पूजा अर्पित की जाती है, क्योंकि वे शाकाहारी आहार की देवी हैं और इनका आशीर्वाद समृद्धि और समर्पण की ओर मार्गदर्शन करता है।

शाकम्भरी देवी के मंदिर हिमाचल प्रदेश के शाकम्भरी पर्वत पर स्थित हैं, जहां हर साल बड़ी धूमधाम से उनकी पूजा होती है। इस अवसर पर लोग विशेष रूप से उपवासी रहते हैं और देवी से आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए व्रत और अनुष्ठान करते हैं। इसके अलावा, देवी के मंत्रों का जाप भी बहुत फलोंदायक माना जाता है, जो जीवन में शांति, समृद्धि और आन्नद लाता है।

- शाकम्भरी देवी का सम्बन्ध अन्य देवियों से -

शाकम्भरी देवी का संबंध अन्य प्रमुख देवी-देवताओं से भी जोड़ा जाता है। उदाहरण स्वरूप, वे दुर्गा देवी की एक अवतार मानी जाती हैं, क्योंकि वे भी जीवन के संरक्षण और बुराई के नाश के लिए ही प्रकट हुई थीं। इसके अलावा, शाकम्भरी देवी का संबंध प्रकृति की शक्ति से भी जोड़ा जाता है, क्योंकि वे पृथ्वी को हर प्रकार के संकट से बचाती हैं और समृद्धि का आशीर्वाद देती हैं।

- शाकम्भरी देवी के महत्व का समग्र दृष्टिकोण --

शाकम्भरी देवी का महत्व न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी है। उनका अस्तित्व पृथ्वी के संसाधनों की रक्षा, भूखमरी के निवारण, और जीवन के आधारभूत तत्वों की सुरक्षा में दिखाई देता है। वे उन सभी प्राणियों के लिए आश्रय देने वाली हैं, जिन्हें जीवन के लिए पोषण की आवश्यकता होती है। उनके आशीर्वाद से कृषि, वन्यजीव, और पर्यावरण की रक्षा होती है, और जीवन का संतुलन बना रहता है।

शाकम्भरी देवी का पूजा और महिमा जीवन के विकास और प्रगति के प्रतीक हैं। उनकी कृपा से हर प्राणी को जीवन के हर पहलू में समृद्धि मिलती है, चाहे वह मानसिक हो या भौतिक। उनके बारे में प्रचलित कथाएँ और उनके पूजन से यह संदेश मिलता है कि हम सभी को प्रकृति के प्रति आभार और समर्पण का भाव रखना चाहिए, ताकि जीवन में खुशहाली और संतुलन बना रहे।




- श्री शाकम्भरी  कवचम् -

शक्र उवाच -

शाकम्भर्यास्तु कवचं सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे कथय षण्मुख ॥ १॥

स्कन्द उवाच -

शक्र शाकम्भरीदेव्याः कवचं सिद्धिदायकम् ।
कथयामि महाभाग श्रुणु सर्वशुभावहम् ॥ २॥

अस्य श्री शाकम्भरी कवचस्य स्कन्द ऋषिः ।
शाकम्भरी देवता । अनुष्टुप्छन्दः ।
चतुर्विधपुरुषार्थसिद्‍ध्यर्थे जपे विनियोगः ॥

ध्यानम् -

शूलं खड्गं च डमरुं दधानामभयप्रदम् ।
सिंहासनस्थां ध्यायामि देवी शाकम्भरीमहम् ॥ ३॥

अथ कवचम् -
शाकम्भरी शिरः पातु नेत्रे मे रक्तदन्तिका ।
कर्णो रमे नन्दजः पातु नासिकां पातु पार्वती ॥ ४॥

ओष्ठौ पातु महाकाली महालक्ष्मीश्च मे मुखम् ।
महासरस्वती जिह्वां चामुण्डाऽवतु मे रदाम् ॥ ५॥

कालकण्ठसती कण्ठं भद्रकाली करद्वयम् ।
हृदयं पातु कौमारी कुक्षिं मे पातु वैष्णवी ॥ ६॥

नाभिं मेऽवतु वाराही ब्राह्मी पार्श्वे ममावतु ।
पृष्ठं मे नारसिंही च योगीशा पातु मे कटिम् ॥ ७॥

ऊरु मे पातु वामोरुर्जानुनी जगदम्बिका ।
जङ्घे मे चण्डिकां पातु पादौ मे पातु शाम्भवी ॥ ८॥

शिरःप्रभृति पादान्तं पातु मां सर्वमङ्गला ।
रात्रौ पातु दिवा पातु त्रिसन्ध्यं पातु मां शिवा ॥ ९॥

गच्छन्तं पातु तिष्ठन्तं शयानं पातु शूलिनी ।
राजद्वारे च कान्तारे खड्गिनी पातु मां पथि ॥ १०॥

सङ्ग्रामे सङ्कटे वादे नद्युत्तारे महावने ।
भ्रामणेनात्मशूलस्य पातु मां परमेश्वरी ॥ ११॥

गृहं पातु कुटुम्बं मे पशुक्षेत्रधनादिकम् ।
योगक्षैमं च सततं पातु मे बनशङ्करी ॥ १२॥

इतीदं कवचं पुण्यं शाकम्भर्याः प्रकीर्तितम् ।
यस्त्रिसन्ध्यं पठेच्छक्र सर्वापद्भिः स मुच्यते ॥ १३॥

तुष्टिं पुष्टिं तथारोग्यं सन्ततिं सम्पदं च शम् ।
शत्रुक्षयं समाप्नोति कवचस्यास्य पाठतः ॥ १४॥

शाकिनीडाकिनीभूत बालग्रहमहाग्रहाः ।
नश्यन्ति दर्शनात्त्रस्ताः कवचं पठतस्त्विदम् ॥ १५॥

सर्वत्र जयमाप्नोति धनलाभं च पुष्कलम् ।
विद्यां वाक्पटुतां चापि शाकम्भर्याः प्रसादतः ॥ १६॥

आवर्तनसहस्रेण कवचस्यास्य वासव ।
यद्यत्कामयतेऽभीष्टं तत्सर्वं प्राप्नुयाद् ध्रुवम् ॥ १७॥

॥ इति श्री स्कन्दपुराणे स्कन्दप्रोक्तं शाकम्भरी कवचं सम्पूर्णम् ॥



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